मैं रुक गया वहाँ
जहाँ गांव का आखिरी पेड़ सूखा खड़ा है
जहाँ सीवान का आखिरी खेत बंजर पड़ा है
जहाँ ट्यूबवेल के नहर का आखिरी कुलावा खुलता है
जहाँ से तुम्हारा नाम चीख चीख कर बोलूँ तो भी कोई नहीं सुनने वाला है
मैं रुक गया वहाँ
जहाँ पेड़ों पर फूल नहीं जिम्मेदारियों के फल लगते हैं
जहाँ सड़के किसी मेले में नहीं बाजार के संकरे से गोदाम में जाती हैं
जहाँ पैरों में चप्पल नहीं रिक्शे की पैडिल पहनी जाती है
जहाँ गुब्बारों में भरकर भूख खरीदी और बेची जाती है
मैं रुक गया वहाँ
जहाँ नींद ख्वाबों से सौदा करते करते खुद सो जाती है
जहाँ ख़्वाब किसी इच्छा को सजाता संवारता मार दिया जाता है
जहाँ रात सुकून के जगह को कल की चिंता से भरती है
जहाँ दिन खुशी के जगह को व्यस्तताओं से भर देता है
मैं रुक गया वहाँ
जहाँ एक बाप ठंड से मरी हुई बेटी को गोद में लिए उसका सर चूम रहा है
जहाँ बुझे हुए अलाव के पास कुत्ते के साथ चिथड़ा ओढ़े एक बच्चा सो रहा है
जहाँ बहू सुबह से अपनी सास पे चिल्लाये जा रही कि उसने रात की बची हुई रोटियाँ कयूँ खा ली हैं
जहाँ आदमी काम के बहाने निकल कर खेत के मेड़ पर बैठ ताश खेल रहा है
मैं रुक गया वहाँ...
©timit_pathil
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