©timit_pathil
Sunday, November 15, 2020
।। तारों को भी क्या गिनना ।।
यूँ आधी रात गये छत से पैर लटकाये हाथों को सिरहाने रख लेटे लेटे तारे गिनना फ़िज़ूल का काम लगता है... पर ऐसे में कभी कभी मुख्तसर से लमहों मे हासिल की गई उम्र भर गले से लगा कर रखने वाली याद तारों के मद्धम प्रकाश मे तैरने सी लगती है... रात की तन्हाई भर जाती है तमाम ख़यालो से... अकेला रहता हुआ मैं ख़ुद में अनेक व्यक्तित्वों को समेटे ख़ुद से ही संवादों के कई झरोखे खोल देता हूँ... सुदूर चमकती कि सी गाड़ी की लाइट अचानक चमककर किसी परिचित की याद के जैसे धड़कन बढ़ा जाती है... कोई जा रहा हो जैसे पर रोक नही पा रहे हम... और ऐसे मे दूर से अस्फुट सी आ रही किसी गाने की अवाज उलझन और बढ़ा जाती है... रुँधे गले से गुनगुनाते हुए मुस्कुराहट चाहते हुए भी पास नही आती... फिर एकाकी होने का भाव बढ़ने लगता... करवट बदल कर आँखो के कोने से फिसलते आँसू को पोछकर एक और रात गुज़र जाने का इंतज़ार करने लगता मैं... यूँ आधी रात गए तारे गिनना सच में कितना फ़िज़ूल का काम है...
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