Monday, November 16, 2020

।। एक सदी ।।

जैसे वक्त ठहर कर ढूंढ़ने लग जाए रास्ता.. जैसे रुक कर लहरें नापने लगें किनारों तक की दूरी.. जैसे रुक गई हो एक उम्र किसी के इंतज़ार में.. वैसे ही तुम्हारी यादें खुद में समेट करके ढ़ेर सारे लम्हों को.. पकड़ कर साँसों की डोर.. धड़कनों की सीढ़ियों पर अपनी पायल की रुनझुन से बचना चाहते हुए सहज सहज बढ़ते हुए रोक लेती हैं.. एक सदी... 


                                                            ©timit_pathil

Sunday, November 15, 2020

।। अक्सर ही ।।

अक्सर,
चिंतन के प्रवाह में ही
व्यथाओं को बहते देखा है ।

विश्वास की छाँह में ही
आरोपों को सहते देखा है ।

भीड़ के उत्त्रास में ही
एकांत को बढ़ते देखा है ।

दिवस के दोपहर में ही
सूरज को ढलते देखा है ।।


                                                            ©timit_pathil

।। तारों को भी क्या गिनना ।।

यूँ आधी रात गये छत से पैर लटकाये हाथों को सिरहाने रख लेटे लेटे तारे गिनना फ़िज़ूल का काम लगता है... पर ऐसे में कभी कभी मुख्तसर से लमहों मे हासिल की गई उम्र भर गले से लगा कर रखने वाली याद तारों के मद्धम प्रकाश मे तैरने सी लगती है... रात की तन्हाई भर जाती है तमाम ख़यालो से... अकेला रहता हुआ मैं ख़ुद में अनेक व्यक्तित्वों को समेटे ख़ुद से ही संवादों के कई झरोखे खोल देता हूँ... सुदूर चमकती कि सी गाड़ी की लाइट अचानक चमककर किसी परिचित की याद के जैसे धड़कन बढ़ा जाती है... कोई जा रहा हो जैसे पर रोक नही पा रहे हम... और ऐसे मे दूर से अस्फुट सी आ रही किसी गाने की अवाज उलझन और बढ़ा जाती है... रुँधे गले से गुनगुनाते हुए मुस्कुराहट चाहते हुए भी पास नही आती... फिर एकाकी होने का भाव बढ़ने लगता... करवट बदल कर आँखो के कोने से फिसलते आँसू को पोछकर एक और रात गुज़र जाने का इंतज़ार करने लगता मैं... यूँ आधी रात गए तारे गिनना सच में कितना फ़िज़ूल का काम है...

                                                            ©timit_pathil

Wednesday, November 4, 2020

।।अभी नहीं।।

अभी नहीं
फलक के उस पार 
ख़्वाबों ने
इक ज़मीं ढूँढी है
मिलूँगा वहीं 
पहले बोसे की
याद की तरह...

                                                              ©timitpathil

Monday, November 2, 2020

।।बाद तुम्हारे जीवन।।

बाद तुम्हारे
जीवन 
कुछ यादें
कुछ अनसुनी फ़रियादें
ज़िम्मेदारियों की इक गठरी
हर दिन उदास दुपहरी
शाम में लोगों का जमघट
रात फिर खाने का झंझट
नींद तकिए तले रहती
सुबह अलसाई आँखें खुलती
फिर शाम तक थके हारे
खुली आँखों के सपने सारे
अलाव के आँच में 
कभी राख कभी धुआँ बनते
बाद तुम्हारे
जीवन
जैसे इंतज़ार है
मृत्यु की मिल्कियत में 
सबकुछ थमा देने तक...



                                                              ©timitpathil

Sunday, November 1, 2020

।।अनुरोध।।

सर्द दिनों की धूप
पहाड़ की ढलान पर उतरते हुए
फूल की ख़ुशबू जैसे
जिसे सिर्फ़ महसूस कर सकूँ ऐसे
अदृष्ट अप्राप्य तुम
तुम्हारे खयालों के साथ 
कहीं खो जाने के लिए
मुझे अकेला
छोड़ क्यूँ नहीं देती..


                                                          ©timitpathil

।।अस्तित्व।।

समुद्र में मिलकर समुद्र बन जाने की बात नहीं.. उसे अपना अस्तित्व खो देने का डर है.. नदी को सिर्फ नदी बने रहना अच्छा लगता .. वह जानती है वापस लौट पानेका कोई रास्ता नही.. जहाँ से चली .. समय के इतिहास में जब कभी चलने का क्षण अंकित किया.. फिर उस तक वापस पहुँच नहीं सकती .. यह असम्भव ही तो है .. लेकिन जिन रास्तों को बनाया.. जिन पहाड़ो से निकली.. जिन गाँवो को जीवन दिया.. जिन जंगलों में से गुनगुनाते हुए गुज़री.. जिन घुमावदार रास्तों में उलझी.. कभी उन्हें मुड़ कर जब भी देखती नदी .. समुद्र में मिलने से डर लगता उसे .. क्योंकि वह समुद नहीं बनना चाहती .. वह नदी बने रहना चाहती है.. ताकि उसकी गोद में खेलने वाले छोटे-छोटे बच्चे जब उसके छोर पर पहुँचे तो उसे पहचान कर उसका नाम लेकर बुलायें.. समुद के प्रभाव में खो गई नदी को भूले नहीं..
                                               वह अपने अंतिम प्रसार मे लिपटकर जमीन से बढ़ती जाती हर तरफ दिशाहीन सी और इस तरह वो रोक लेना चाहती है ख़ुद को समुद्र में मिलने से .. वहाँ भी वह किसी डेल्टा के रूप में भौगोलिक नामकरण से दूर सिर्फ नदी बने रहना चाहती है.. देखना कभी नदी अपने रास्तों के पहाड़ के ढलान पर.. हर मोड़.. हर एक गाँव के पास समुद्र में मिलने के भय से जब कांपती तब उसकी उठती लहरों में सुनना वह धीरे से कहती सिर्फ नदी बने रहना मुझे.. सिर्फ नदी ..

                                                         ©timitpathil


।।स्वप्न।।

कभी
जागते हुये ऐसे अनायास ही
लेकर आते स्मित
और तब
उसमें अपनी अस्मिता को सँवारते
कभी
नीद में खोकर कहीं
अपनी निश्छलता में सबकुछ समेटते
कभी
वर्तमान के संघर्षों को भुलाकर
सुखद भविष्य की रपरेखा बनाते
वे सपने
तब अनेक और सुन्दर थे
अब जैसे कि
ये बारिश की बूँदें हैं...



                                                        ©timitpathil

कुछ ख़्वाब तक है ये जिन्दगी

कुछ ख़्वाब तक है ये जिंदगी कभी  आस्था का दिया लिए कभी  नींद  का  सौदा  किये कभी व्यस्तता में  उलझ गए कभी फ़ुरसतों में ही जी लिए अपनी अलग द...